कुछ दशक-पूर्व विश्व के प्रमुख खगोलविज्ञानी और विज्ञान-संचारक डॉ० जयन्तविष्णु नार्लीकर प्रयागराज-स्थित हरिश्चन्द्र अनुसंधान-संस्थान (छतनाग मार्ग, झूँसी) मे पधारे थे। चूँकि मैने अपनी खगोलविज्ञान-विषयक पुस्तक ‘ब्रह्माण्ड मे विज्ञानियोँ की छलाँग’ समर्पित की थी और अनेक राष्ट्रीय कर्मशालाओँ मे उनसे संवाद होता रहा, इसलिए मै उनके सन्निकट रहता था। नार्लीकर साहिब जब भी इलाहाबाद आते थे, मै उनसे सम्पर्क करता था, फिर विज्ञान-प्रौद्योगिकी-विषयक वार्त्ता भी करता था। वे शुद्ध हिन्दी का प्रयोग उच्चारण-स्तर पर करते थे।
एक भेँटवार्त्ता के दौरान मैने प्रश्न किया था, “आप इतनी शुद्ध हिन्दी कैसे कह लेते हैँ, जबकि आप अहिन्दीभाषाभाषी हैँ?”
नार्लीकर साहिब ने बताया, “शायद आप नहीँ जानते होँगे कि मेरी माता सुमतिविष्णु नार्लीकर संस्कृत की विदुषी थीँ, जो धाराप्रवाह हिन्दी का व्यवहार करती थीँ। मैने उनसे शुद्ध हिन्दी-वाचन का संस्कार ग्रहण किया है, फिर आप-जैसे शुद्ध हिन्दी के प्रति विशेष आग्रही से ग्रहण कर लेता हूँ।”
“अच्छा बताइए– हिन्दीभाषा मे विज्ञान-लेखन की दशा और दिशा को आप किस रूप मे प्रकट करना चाहेँगे?”
डॉ० नार्लीकर जी का जवाब था, “लेखक लिखते नहीँ। यदि हिन्दीभाषा मे विज्ञान-प्रोद्योगिकी विषयोँ पर लिखा जाये तो बहुत अच्छी सम्भावनाएँ हैँ। मेरी समझ मे चिकित्सा, खगोल, अन्तरिक्ष, कप्यूटर, रोबोट, इण्टरनेट, वेब टेक्नॉलॉजी रक्षा-प्रतिरक्षा, अभियान्त्रिकी, एअरफ़ोर्स, कृषि-पशुपालन आदि क्षेत्रोँ मे हिन्दी मे पुस्तकेँ आनी चाहिए; जैसाकि आप लिखते आ रहे हैँ। इसके लिए सरकार की ओर से भी प्रोत्साहन मिलना चाहिए।”
शुद्ध हिन्दी-वाचन मे दक्ष थे, डॉ० जयन्तविष्णु नार्लीकर–आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
