आजकी सबसे घटिया उपाधि ‘पीएच्० डी०’ की–आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

आज पंचानवे प्रतिशत से अधिक का शोधलेखन ‘दो कौड़ी’ का होता है। यदि निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ (शोधनियमानुसार) उनके शोधकर्म का परीक्षण और मूल्यांकन किया जाये तो बहुसंख्य शोधार्थी १०० पूर्णांक मे से १० प्राप्तांक के क़ाबिल भी नहीँ होँगे। उन कुपात्रोँ की क़बिलीयत (‘क़बिलियत’ अशुद्ध है।) की संस्तुति रिश्वत लेकर परीक्षक करता है और निर्देशक भी; सुख-सुविधा-साधन अलग से पाते हैँ। मेरे पास एक नहीँ, शताधिक प्रमाण हैँ, जो आगे चलकर, पुन: रिश्वत देकर ‘प्रोफ़ेसर’ बना दिये जाते हैँ, जबकि वे ‘प्रोफ़ेसर’ के ‘प्रो०’ की भी व्याख्या नहीँ कर सकते।
एक अन्य पक्ष है कि बहुसंख्य लोग ऐसे हैँ, जो एक वा दो-चार पुस्तकोँ के लेखक कहलाते हैँ और सम्बन्धित विषयोँ के विभागाध्यक्षोँ की ‘गणेश-परिक्रमा’ कर, अपनी दोयम दर्ज़े की कृति/कृतियोँ पर शोधकर्म भी करा लेते हैँ। इसके लिए स्वयं को साहित्यकार कहनेवाले लोग रिश्वत देकर शोध कराते हुए, साहित्यलोक के महान् ‘प्रवर्तक’ भी बन जाते हैँ, जबकि उन्हेँ ‘प्रवर्तक’ के ‘प्र’ का सम्बोध तक नहीँ होता।
वास्तव मे, इसप्रकार के सारे ‘कृत्रिम’ शोधकर्म समाप्त कर देने चाहिए। विषय से सम्बन्धित अलग-अलग विषयोँ की एक समिति बनायी जाये, जिसमे देश के सत्यनिष्ठ विषय-विशेषज्ञोँ को रखा जाये। वे निर्धारित विषय से सम्बन्धित प्रश्न करेँ और अभ्यर्थी-अभ्यर्थिनियाँ उत्तर देँ। प्रत्येक अभ्यर्थी के लिए २५ मिनट का समय निर्धारित किया जाये, जिसमे १० मिनट का समय किसी विषय पर अध्यापन करने के लिए कहा जाये; सारी योग्यता सामने आ जायेगी।
यही कारण है कि आजके बहुसंख्य ‘प्रोफ़ेसर’ और ‘प्रवर्तक’ अज्ञान के कूप मे ‘मण्डूक’ की भूमिका मे दिखते रहते हैँ; उनकी पद-प्रतिष्ठा ख़रीदी हुई रहती है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयगराज; २० मई, २०२५ ईसवी।)

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